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ग़ज़ल
तसव्वुर से नज़ारे तक फ़रोग़-ए-सेहर-ए-हैरत है
हक़ीक़त भी फ़साना है फ़साना भी हक़ीक़त है
ऋषि पटियालवी
ग़ज़ल
आते जाते लोगों को हम देख रहे हैं बरसों से
कुछ तो अपने ही ठहरे हैं कुछ लगते हैं अपनों से
क़ौस सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
इलाही आसमाँ टूटे कभी शब-हा-ए-फ़ुर्क़त पर
पड़े हैं जान के लाले मुसीबत है मुसीबत पर